राष्ट्रीय अभिव्यक्ति का अमर प्रतीक वंदेमातरम
भारत के स्वतंत्रता संग्राम एवं स्वाधीनता आंदोलन में जिन नारों एवं गीतों की उल्लेखनीय भूमिका रही, उनमें वंदेमातरम का विशिष्ट स्थान है। वंदेमातरम मातृभूमि के प्रति उमड़ रहे प्रेम को लेकर बनाया गया एक गीत है जिसका अर्थ है, मैं अपनी मां से प्रार्थना करता हूं। भारतीय स्वतंत्रता अभियान के समय में वंदेमातरम ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उस समय आजादी को लेकर बहुत सी रैलियां भी बंगाल और कलकत्ता में आयोजित की गई थीं, जिनमें वंदेमातरम के नारे लगाये जाते थे। सभाओं और रैलियों में सभी देशभक्त उस समय वंदेमातरम के नारे लगाते थे। इस नारे से क्रांतिकारी और अहिंसावादी दोनों ही समान रूप से अनुप्रेरित एवं प्रफुल्लित होते थे। पारस्परिक सम्बोधन में भी राष्टभक्त वंदेमातरम का ही उपयोग करते, क्योंकि यह नारा सम्पूर्ण राष्ट्र की धर्मनिरपेक्षता, साम्प्रदायिक सौहार्द्र, राष्ट्रीय एकता एवं क्रांतिकारी चेतना का प्रतीक माना जाता था।
हमारे राष्ट्रीय गीत वंदेमातरम के मूल रचियता बंगला के सुप्रसिद्ध कथा शिल्पी बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय थे, जिन्होंने 1876 में भारतीय स्वतंत्रता अभियान से प्रेरित होकर बंगाली और संस्कृत शब्दों का उपयोग कर इस कविता की रचना की थी। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय नई स्थापित कलकत्ता यूनिवर्सिटी के प्राचीन स्नातकों में से एक थे। बीए होने के बाद वे ब्रिटिश सरकार में सिविल कार्यकारी के पद पर कार्यरत थे। बाद में वे डिस्ट्रिक्ट मजिस्टे्रट औश्र फिर डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर भी बने। चट्टोपाध्याय को भारतीय स्वतंत्रता अभियान में काफी रूचि थी। कहा जाता है कि वंदेमातरम की रचना का विचार बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के दिमाग में 1876 में गवर्मेंट आॅफिसियल के पद पर रहते हुए आया था। सर्वप्रथम यह अमर गीत वेग दर्शन नामक पत्रिका में अप्रैल 1881 में प्रकाशित हुआ था। 1882 में उन्होंने इस गीत को अपने प्रसिद्ध उपन्यास आनंद मठ में शामिल किया था। विभिन्न प्रकार के राष्ट्रीय उत्सवों, जुलूसों एवं जनसभाओं में इस लोकप्रिय गीत की गूंज सुनाई देने लगी। 1896 के कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार वंदेमातरम को राष्ट्रवंदना के रूप में गाया गया था, जिसकी संगीत धुन गुरु रविंद्रनाथ टैगोर ने स्वयं तैयार की थी और कांग्रेस के सेशन में कलकत्ता में गाया था। 1905 में कवियित्री सरला देवी ने बनारस के कांग्रेस सेशन में गाया था। इसके बाद लाला लाजपत राय ने लाहौर से वंदेतामरम नाम का जर्नल शुरू किया। 1907 में भिकाजी कामा ने जर्मनी में तिरंगे का पहला रूप (आकार) बनाया, जिसके मध्य में वंदेमातरम लिखा हुआ था। 20 नवंबर 1909 को इस गीत का श्री अरबिंद घोष ने साप्ताहिक अखबार कर्मयोगी में हिंदी रूपांतर किया था। श्री अरबिंद घोष ने और दूसरी भी बहुत सी भाषाओं में इस गीत का अनुवाद किया है।
जब फिरंगी सरकार की दमनकारी नीतियों व अत्याचारों से पीड़ित भारतीय जनता के विरोध की गति मंद पड?े लगी, तक थके हुए प्राणी व गुलामी की जंजीरों में जगकड़े भारतीय जन-मानस को जाग्रत करने का कार्य इस गीत ने किया। फिर तो न जाने कितने देशभक्तों ने इस गीत को गाते हुए हंसते-हंसते अपने प्राणों को अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता की पावन अग्रि में झोंक दिया। कितनी ही माताओं ने अपने कलेजों के टुकड़ों को इस गीत को गाते हुए स्वतंत्रता संग्राम में भेजा औश्र न जाने कितनी नारियों ने इस गीत को गुनगनाते हुए अपनी मांग सुनी कर दी, लेकिन यह सिलसिला लगातार जारी रहा। वंदेमातरम के महत्व को दशार्ने के लिए पत्र-पत्रिकाओं ने अनेक सम्पादकीय एवं आलेख प्रकाशित किये। शहीदे आजम सरदार भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, रामप्रसाद बिस्मिल, बटुकेश्वरदत्त, ठाकुर रोशन सिंह, राजेंद्र लहड़ी, हेमूकालानी, चंद्रशेखर आजाद आदि अनेक क्रांतिकारियों, शहीदों ने वंदेमातरम गीत-गाते हुए हंसते हुए फांसी के फंदे को चूमा और अपने को देश पर न्योछावर कर दिया। उस समय बंगाल के सुप्रसिद्ध पत्र आनंद बाजार ने लिखा कि सरकार को यह समझना चाहिए कि वंदेमातरम बोलने वाले लोग धीरे-धीरे मृत्यु के भय से मुक्त हो रहे हैं। बंगाल के एक और पत्र बंगवासी ने उल्लेख किया कि वंदेमातरम राष्ट्रभक्ति का परिचायक है, राष्ट्रद्रोह का नहीं। यह प्रकाश है, अंधकार नहीं। यह मृत्यु रहित जीवन है। वंदेमातरम गीत को राष्ट्रीय मयार्दा बंग-भंग आंदोलन के समय प्राप्त हुई थी, जिसकी कल्पना बंकिम बाबू आजीवन करते रहे। बंगाल के विभाजन के फलस्वरूप अंग्रेज सरकार के विरूद्ध वंदेमातरम की इस लोकप्रियता से बौखलाकर अंग्रेजी सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया और इसका प्रयोग एवं अभिवादन वर्जित कर दिया। लेकिन इस दमनकारी नीति के बावजूद भी अंग्रेज सरकार भारतीय जनता का मनोबल न गिरा सकी और यह गीत बंगाल की सीमाओं को लांघकर सम्पूर्ण देश का सर्वप्रिय गीत बन गया। वंदेमातरम के द्वारा लोगों में राष्ट्र के प्रति एक नई भावना एवं उत्साह का संचार हुआ। शिथिल सी पड़ती राष्ट्रीय एकता में इस गीत ने संजीवनी का कार्य किया। इसी का सुखद परिणाम था कि वंदेमातरम लोगों की आत्मा की ध्वनि बन गया तथा वर्षों से गुलामी की बेडिय़ों में जकड़े भारत ने स्वतंत्रता का मुंह देखा और भारतीय इतिहास में नवप्रभात हुआ।
इस लोकप्रिय, उत्साहवर्धक एवं प्रेरणादायक गीत की मुख्य विशेषता यह भी रही है कि मातृभूमि की महिमा तथा उसकी वंदना का जिस सुन्दरतम ढंग से वर्णन किया गया है उतना शायद ही किसी अन्य देश भक्ति के गीत में देखने को मिलता है। वंदेमातरम के महत्व पर प्रकाश डालते हुए श्री अरबिंद घोष ने भविष्यवाणी की थी एक दिन यह गीत देशवासियों को राष्ट्रधर्म की दीक्षा देने का मंत्र बनेगा। अपने इस लोकप्रिय एवं प्रेरणा स्त्रोत गीत से बंकिमचंद्र जी स्वयं कितने आश्वस्त थे, इसका ज्वलंत प्रमाण इस कथन से सिद्ध होता है, जब उन्होंने अपनी पुत्री से जोरदार शब्दों में कहा था, मेरी कुटिया गंगा में डूबों दी जाये तो भी कोई हानि नहीं होगी। यदि यह एक महान गीत बचा रहे तो भी देश के हृदय में मैं जीता रहंूगा। नि:संदेह स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी तनमानस के दिलों दिमाग पर इस गीत का प्रभाव छाया हुआ है। वर्तमान में भी प्रत्येक भारतीय वंदेमातरम गीत के प्रति हार्दिक सम्मान एवं श्रद्धा रखता है। इसलिए हम समस्त भारतीयों का यह पुनीत कर्तव्य है कि इस गीत को अपने हृदय पटल पर युगों- युगों तक अंकित रखें और वर्तमान परिवेश में राष्ट्रीय कर्तव्य के निमित्त अपना सर्वस्व बलिदान करने को तत्पर रहें। ?
नि:संदेह स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी तनमानस के दिलों दिमाग पर इस गीत का प्रभाव छाया हुआ है। वर्तमान में भी प्रत्येक भारतीय वंदेमातरम गीत के प्रति हार्दिक सम्मान एवं श्रद्धा रखता है। इसलिए हम समस्त भारतीयों का यह पुनीत कर्तव्य है कि इस गीत को अपने हृदय पटल पर युगों-युगों तक अंकित रखें और वर्तमान परिवेश में राष्ट्रीय कर्तव्य के निमित्त अपना सर्वस्व बलिदान करने को तत्पर रहें।
निशा सहगल